संपादकीय: बोडोलैंड का जनादेश और असम की राजनीति की नई पटकथा

- Reporter 12
- 27 Sep, 2025
बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) चुनाव के नतीजे केवल क्षेत्रीय राजनीति तक सीमित नहीं हैं, बल्कि असम की सत्ता-समीकरण पर गहरी चोट छोड़ गए हैं। मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने जिस चुनाव को हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण पर साधने की कोशिश की, वहां मतदाताओं ने साफ संदेश दिया—यहाँ की राजनीति डर और नफ़रत से नहीं, बल्कि पहचान, विकास और सम्मान की जमीन पर तय होगी।
40 सीटों वाली काउंसिल में बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) ने 28 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया, जबकि सत्ता में काबिज भाजपा और उसकी पूर्व सहयोगी यूपीपीएल हाशिये पर सिमट गईं। यह वही बीपीएफ है, जिसे 2020 में सत्ता से बाहर कर दिया गया था। पाँच साल बाद उसकी इस धमाकेदार वापसी ने भाजपा की कथित "अजेय चुनावी मशीनरी" को ध्वस्त कर दिया।
भाजपा का संकट केवल सीटों तक सीमित नहीं है। यह हार उस राजनीति पर सवाल खड़ा करती है, जो धार्मिक नफ़रत के वीडियो और "मियां" शब्द की राजनीति पर टिकी हो। बोडोलैंड के आदिवासी और जनजातीय मतदाता अब इन बयानों के बजाय ज़मीन, शिक्षा, रोजगार और शांति को मुद्दा बना रहे हैं।
सबसे बड़ा झटका भाजपा के लिए यह है कि बीटीआर के हालिया सीमांकन के बाद बनी 19 विधानसभा सीटों पर यह परिणाम सीधे असर डालने वाले हैं। 2021 में भाजपा ने इनमें से अधिकतर सीटों पर कब्जा किया था, मगर अब बीपीएफ की लहर के बाद 10-12 सीटें उसके हाथ से फिसल सकती हैं। और 126 सीटों वाली असम विधानसभा में यह संख्या निर्णायक साबित हो सकती है।
अब सवाल उठता है—क्या भाजपा फिर से बीपीएफ के साथ गठबंधन की राह तलाशेगी? या आदिवासी असंतोष उसे राज्यव्यापी चुनौती में बदल देगा? जो भी हो, एक बात साफ है: असम में 2026 का चुनाव अब विकास और साझेदारी की राजनीति पर खड़ा होगा, न कि धार्मिक विभाजन की लाठी पर।
बोडोलैंड का यह जनादेश भाजपा और सरमा सरकार के लिए चेतावनी है कि क्षेत्रीय अस्मिता और वास्तविक मुद्दों को दरकिनार कर चुनावी नैरेटिव गढ़ने की राजनीति अब टिकने वाली नहीं। मतदाताओं ने बता दिया है कि नफ़रत नहीं, उम्मीद उन्हें साथ खींचती है।
यही असम की राजनीति की नई पटकथा है—जहाँ सत्ता का भविष्य अब दिल्ली से नहीं, कोकराझार और चिरांग की गलियों से लिखा जाएगा।
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